बुधवार, 1 मई 2024

सूतांजली मई 2024

 


गलत गलत है, भले ही उसे सब कर रहे हों।

                    सही सही है, भले ही उसे कोई न कर रहा हो।

                                                                                      दलाई लामा

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प्रबंधन

          प्रशांत की फोन पर अपनी ही कंपनी के एक अन्य प्लांट मैनेजर संजय से तकरार हो रही थी, "संजय, मुझे दोष मत दो, यह तुम्हारी गलती है.....।"  लेकिन फोन के दूसरे छोर पर गुस्से में संजय के जोर से चिल्लाने की आवाज के कारण प्रशांत आगे बात नहीं कर सका। दोनों के बीच तीखी बहस हुई और आखिरकार प्रशांत ने गुस्से से कांपते हुए फोन पटक दिया।

          प्रशांत, एक बहुराष्ट्रीय इंजीनियरिंग कंपनी के युवा प्लांट मैनेजर, एक बेहद काबिल और  समर्पित अधिकारी हैं। उन्हें गुस्सा कभी आता ही नहीं है, क्योंकि वह तो हर समय उनकी नाक पर ही मौजूद रहता है। अगर जाये तब तो आये। प्रशांत ने संजय से अपना ध्यान हटा अपने एक पर्यवेक्षक (सूपर्वाइज़र), अशोक को फोन किया, "रोलेक्स के बॉयलर प्रोजेक्ट में अभी कितना काम बाकी है?"

दो दिन और लगेंगे सर।”

"दो दिन, क्या बकवास कर रहे हो? यह तो कल ही ख़त्म हो जाना चाहिये था", प्रशांत का चेहरा फिर लाल हो गया और तीखे स्वर में बोला।

"लेकिन सर, हमारी वेल्डिंग मशीन में कुछ समस्या है।"

"बहाने मत बनाओ, मुझे नहीं पता कि तुम क्या और कैसे करोगे, लेकिन तुम्हें इसे आज ही खत्म करना होगा", और प्रशांत ने फोन रख दिया।

          लेकिन तभी प्रशांत का फोन बज उठा। उसे अपने बॉस, गोपाल का परिचित कर्कश स्वर सुना, "तुम क्या कर रहे हो? मैंने कल भारत फोर्जिंग्स के लिये तुम्हारा प्रोग्रेस चार्ट देखा। यह निर्धारित समय से पीछे है। तुम्हें अपनी स्पीड बढ़ानी होगी"।

"लेकिन सर...... "

"बहाने मत बनाओ और काम समय पर पूरा करो", और गोपाल ने लाइन काट दी।

          प्रशांत  ने अपने भीतर के क्रोध को दबाते हुए फोन रख दिया। अपने ठंडे चैंबर में भी प्रशांत  पसीने से लथ-पथ हो चुका था। अपने चेहरे को हथेलियों में लपेट लिया और बुदबुदाया, "ओह, आखिर यह हो क्या रहा है!" उसने डॉ.स्वामीनाथन, जो उसके इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर थे, से मिलने का निश्चय और रात करीब 8 उनके घर पर पहुंचा।

          प्रोफेसर स्वामीनाथन कुछ मिनट तक अपने शिष्य के चेहरे को देखते रहे और फिर स्नेह से पूछा, "तुम बहुत परेशान और थके हुए लग रहे हो। तुम्हें क्या परेशान कर रहा है?" प्रशांत  ने सारी बात बताई और पूछा, "मैं अपने क्रोध पर नियंत्रण क्यों नहीं रख पा रहा हूं। खुद पर नियंत्रण कैसे हासिल करूं?"

          स्वामीनाथन सहानुभूतिपूर्वक मुस्कुराये और बोले, "नियंत्रण पाने से पहले तुम्हें स्वयं के प्रति सचेत होना होगा। तुम पूछ रहे हो, 'मेरा नियंत्रण’ 'क्यों नहीं' है?' लेकिन जब तुम क्रोध  से भरे होते हो उस समय तुम्हारा वह मैं  वहाँ है ही नहीं, क्योंकि तुम खुद क्रोध में परिवर्तित हो चुके हो। अतः अपनी भावनाओं पर नियंत्रण हासिल करने की प्रथम सीढ़ी है अपने 'मैं' को पुनः प्राप्त करना। तुम्हारा वह मैं वहाँ से जा चुका है इसलिए क्रोध आता है। अतः जब तुम में क्रोध हो, तब तुमको  जागरूक और सचेत होना होगा कि 'मैं  में क्रोध है। यह मैं  और क्रोध  अलग-अलग हैं। तुम क्रोध नहीं हो। क्रोध तुम्हारे अंदर घटित होने वाली एक आंतरिक गतिविधि है, तुम्हारे अंदर होने वाली हलचल है, तुम वह नहीं हो, वे एक नहीं हैं, वे अलग-अलग हैं। यह नियंत्रण की दिशा में दूसरा कदम है, तुम इसका अभ्यास करो। और जब तुम यह कर लो तब फिर मिलेंगे।”

          जैसे ही प्रशांत ने,  प्रोफेसर स्वामीनाथन की बातों के अनुसार अभ्यास करना प्रारम्भ किया,  उसने अनुभव किया कि विचारों और भावनाओं के प्रति सचेत होने का कार्य, कुछ हद तक उन पर नियंत्रण करने की ओर ले जाता है। जब उसने प्रोफेसर को अपना अनुभव सुनाया, तो स्वामीनाथन ने कहा, "बहुत अच्छे,  अब तुम अपने अंदर की एक क्षमता और शक्ति को पहचान गये हो जिसके बारे में तुम  पहले अंजान थे। अब तुम जानते हो कि तुम्हारे अंदर एक क्षमता है जो तुम्हारे मैं को तुम्हारे विचारों और भावनाओं से पीछे हट सकती है और उन्हें एक साक्षी के रूप में देख सकती है। अगला कदम इस अलगाव को अधिक-से-अधिक पूर्ण और परिपूर्ण बनाना है। इसी पर और अभ्यास करो, पीछे हटना और अपने संज्ञानात्मक दिमाग को विचारों और भावनाओं के प्रवाह से पूरी तरह से अलग कर लेना। उन्हें समुद्र में लहरों की तरह उठते और गिरते हुए देखना। अब जब फिर मिलेंगे तब हम आगे चर्चा करेंगे।"

       प्रशांत  ने इसे व्यवहार में लाने की कोशिश करना प्रारम्भ किया। उसे पता चला कि वह अपने बारे में कितना कम जानता है और जानने के लिये कितना कुछ है। वह अपनी बढ़ती हुई आंतरिक स्वतंत्रता और समझ का अनुभव कर रहा था जो बढ़ती आत्म-जागरूकता और आत्म-अनासक्ति से आती है। रविवार को जब वह दोबारा अपने गुरु से मिला तो प्रशांत ने धन्यवाद देते हुए कहा, "मैं अब अधिक शांतिपूर्ण, सचेत, कम तनावपूर्ण और खुद के अधिक नियंत्रण में हूं।"

          स्वामीनाथन प्रसन्नता से मुस्कुरा उठे और कहा: "बहुत अच्छा। लेकिन तुमने जो भी प्राप्त किया है उससे संतुष्ट मत होना, निरंतर आगे बढ़ते रहना। अधिक-से-अधिक सतर्क और जागरूक रहना और अपने विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं, आवेगों, इच्छाओं और उद्देश्यों के अंतरतम स्रोत की खोज करने का प्रयास करना। जब भी तुम्हारे मन में क्रोध या ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनाएँ आती हैं, तब अहंकार या इच्छा के उन बिंदुओं को पहचानने का प्रयास करना  जिनसे यह उत्पन्न होती हैं। तुम देखोगे कि अधिकांश नकारात्मकताएँ और अशांति आहत अहंकार या असंतुष्ट इच्छा से आती है, और तब तुम यह अनुभव करोगे कि तुम्हारा यह साक्षी भाव केवल द्रष्टा नहीं है उसके पास नियंत्रण की शक्ति भी है। यह शक्ति उन विचारों या भावनाओं को अस्वीकार कर सकता है जिन्हें वह नहीं चाहता है और दूसरे नये विचारों और भावनाओं को उत्पन्न कर सकता है जिन्हें वह विकसित करना चाहता है। और यह जीवन भर की एक आंतरिक यात्रा और नई खोज होगी। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाओगे नये-नये अध्याय खुलते जायेंगे। यही सनातन है, अनंत है जिसका कोई अंत नहीं। युगों से चलता रहा है, युगों तक चलता रहेगा, सनातन है।”  

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प्रश्न पूछो ध्यान से .....

          गीता के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण के विश्व रूप दर्शन का प्रसंग है। इसके पूर्व के अध्याय में भगवान अपनी विभूतियों का वर्णन करते हैं। इसे सुन अर्जुन के मन में भगवान के उस स्वरूप के दर्शन की इच्छा जागृत होती है और वे श्रीकृष्ण से उस स्वरूप के दर्शन कराने का अनुरोध करते हैं। अर्जुन के इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए भगवान उसे उस स्वरूप का दर्शन कराते हैं। प्रारम्भ में अर्जुन को भगवान के विकराल रूप का दर्शन होता है। इस स्वरूप को देख कर अर्जुन भयभीत हो जाता है, व्याकुल हो जाता है। अर्जुन को जो स्वरूप दिखा उसकी उसे कल्पना नहीं थी, अर्जुन ने उसका विस्तृत वर्णन किया। भय के कारण उसका मतिभ्रम तक हो जाता है और पूछता है कि आप हैं कौन’, उन्हें बारंबार प्रणाम कर पूछता है कि मैं आप कि प्रवृत्ति को जानना चाहता हूँ। अलग-अलग सम्बोधनों से अर्जुन उनकी स्तुति करता है और यह भी कहता है कि आपके इस स्वरूप को देख कर मैं हर्षित भी  हो रहा हूँ लेकिन साथ ही मेरा मन भय से व्याकुल भी हो रहा है अतः आप मुझे अपना चतुर्भुज स्वरूप दिखाइये। भय से किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ अर्जुन अब अपनी प्रारम्भिक शिष्टाचार को भूल कर सीधे-सीधे चतुर्भुज स्वरूप के दर्शन की इच्छा जाहिर करता है।

          कौन से शिष्टाचार की? आइये एक बार गौर करते हैं अर्जुन के पहले प्रश्न पर। अर्जुन सीधे अपनी इच्छा जाहिर नहीं करता, वह कहता है कि

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर |
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम || 11.3||

 हे परमेश्वर! आप वास्तव में वही हो जिसका आपने मेरे समक्ष वर्णन किया है!, किन्तु हे परम पुरुषोत्तम! मैं आपके विराट रूप को देखने का इच्छुक हूँ।

यहाँ अर्जुन यह स्वीकार करता है कि श्री कृष्ण वैसे ही हैं जैसा उन्होंने अपना वर्णन किया है। लेकिन उसी एक ही सांस में वह उनके उस स्वरूप को देखने की इच्छा भी प्रकट करता है। लेकिन इसके तुरंत बाद उसे अपनी भूल का अहसास होता है कि बिना यह जाने-समझे कि वह उसके दर्शन का अधिकारी है या नहीं, केशव उसके दर्शन करवाना चाहते हैं या नहीं इस प्रकार से अपनी इच्छा जाहीर करना उचित नहीं और तब वह अपने प्रश्न को संशोधित करते हुए आगे जोड़ता है :

 

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।11.4।।

 

हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका  वह रूप देखा जाना सम्भव है – ऐसा आप मानते हैं, तो

 हे योगेश्वर मुझे  आपके उस अविनाशी स्वरूप का दर्शन कराइये  

यानि अगर श्री कृष्ण चाहते हों और अगर अर्जुन उस स्वरूप के दर्शन करने के अधिकारी हों तब  वह श्रीकृष्ण के उस स्वरूप का दर्शन करना चाहते हैं।

तब श्री कृष्ण उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए पहले विकराल और फिर चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराते हैं। तभी कहा गया है –

“प्रश्न पूछो ध्यान से , उत्तर मिलेगा ज्ञान से”

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विशिष्टता                                                  संस्मरण जो सिखाती है जीना

          अब्राहम लिंकन अमेरिका के उन गिने-चुने राष्ट्रपतियों में से एक हैं जिन्हें आज भी पूरा विश्व याद कर श्रद्धा से नत मस्तक हो जाता है। जब अमेरिका गृह युद्ध में बुरी तरह उलझा हुआ था, वे लिंकन ही थे जिन्होंने बड़े धैर्य और साहस के साथ अपने देश का नेतृत्व किया और देश की किश्ती को उस तूफान से निकाल कर लाये। उनके जीवन की अनेक छोटी-छोटी घटनाएँ प्रचलित हैं जो उनकी सफलता का राज तो खोलती ही हैं साथ ही हमें भी जीवन का पाठ पढ़ाती हैं। वैसी ही अनेक घटनाओं में से एक है यह घटना।  

          सबसे निचले स्तर का एक अमेरिकी सैनिक अपने देश के लिए गृहयुद्ध लड़ रहा था। उसकी पत्नी एक बड़ी झील में डूब गई और उसे किसी भी तरह उसके शव को निकालने और उसे उचित तरीके से दफनाने में मदद करने वाला कोई नहीं मिला। किसी ने उसे अब्राहम लिंकन से मदद मांगने का सुझाव दिया जो उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति थे। लिंकन की व्यवस्था में, सेना के किसी भी रैंक का सैनिक उनसे मिल सकता था।

          सैनिक लिंकन के पास गया और अपनी समस्या बताई। लेकिन उस समय लिंकन, गृहयुद्ध की एक महत्वपूर्ण घटना से निपटने की कठिनाइयों और जिम्मेदारियों में उलझे हुए थे। उन्होंने हल्की उपेक्षा के भाव से कहा, "क्या मुझे ऐसी साधारण सी चीजों के बारे में चिंतित होना पड़ेगा"। अपने देश के राष्ट्रपति के इस कथन से सिपाही बहुत निराश हुआ और हतोत्साहित होकर चला आया। उसके लिए यह घटना साधारण नहीं थी। वह बड़ी आशा लेकर उनसे मिलने गया था।

          लिंकन ने सैनिक से जो कुछ कहा वह वैध हो सकता है, इसलिए नहीं कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति थे, बल्कि इसलिए कि वे एक देश का नेतृत्व कर रहे थे जब वह गंभीर संकट से गुजर रहा था। इतनी बड़ी जिम्मेदारी का बोझ उठाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए सैनिक की समस्या क्या मामूली नजर नहीं आती? लेकिन लिंकन दयालु, कोमल हृदय वाले दुर्लभ नेताओं में से एक थे। गृहयुद्ध की उस समस्या से फारिग होने के कुछ समय बाद लिंकन को लगा कि उन्होंने उस सैनिक से जो कहा वह बहुत निर्दयी और अमानवीय था। अमेरिका के राष्ट्रपति तुरंत उसे अपने शिविर में बुलाने के बजाय खुद युद्ध क्षेत्र में पहुंचे और सैनिक के तंबू में घुस गये। लिंकन ने सैनिक से कहा, "मुझे दुख है, मैंने तुम्हारे साथ एक निर्दयी व्यवहार किया है। मुझे बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?"  सैनिक की समस्या को धैर्यपूर्वक सुनने के बाद लिंकन ने सैनिक की पत्नी का शव बरामद करने और उसे दफनाने की पूरी व्यवस्था की।

          केवल वही व्यक्ति जो अपने गहरे हृदय में रहता है वह महसूस कर सकता है जो लिंकन ने महसूस किया। उनके मन में बसने वाला कोई अन्य नेता, चाहे वह कितना भी महान, सुसंस्कृत और परिष्कृत क्यों न हो, उस तरह महसूस नहीं किया होगा जैसा लिंकन ने एक "महत्वहीन" सैनिक की "तुच्छ" समस्या के लिए महसूस किया।

इसका अहसास होना और फिर उस पर अमल करना ही हमें विशिष्ट बनाता है।

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https://youtu.be/qBS_oSsqfno

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

सूतांजली अप्रैल २०२४


 

अंधेरे को हटाने में समय बर्बाद मत कीजिये।

बल्कि दीये को जलाने में समय लगाइये।

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सीता - अबला या सबला

          हमारा समाज, विशेषकर आज का समाज बड़ा विचित्र है। ऐतिहासिक प्रेरणा चरित्रों को जिनसे हम प्रेरणा लेते रहे, पूजते रहे, अपना पथ प्रदर्शक मानते रहे उनके जीवन में से कुछ खंडों को निकाल कर, उनकी विशेषताओं को नकारात्मक रूप में  प्रस्तुत कर समाज की नजरों से गिराने में लगा है। यही नहीं इसके उलट समाज के निष्काषित, त्याज्य चरित्रों को महिमा मंडित कर उन्हें प्रतिष्ठित करने में तथा उनके साथ अन्याय हुआ है का जुमला उछाल कर उन्हें न्याय दिलाने में लगा है। ये वे लोग हैं जो पहले अपना उद्देश्य स्थापित करते हैं और फिर उसके अनुकूल अपने शब्द जालों से उसे सही प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हैं। हमारे समाज का अ-शिक्षित अन-पढ़ वर्ग उनकी लच्छेदार भाषा में फंस जाता है और उनकी भाषा बोलने लगता है। अपने सनातनी परंपरा का निर्वाह करते हुए, जिसने अपने स्थापित सत्यों का विरोध करने वालों को भी  प्रताड़ित नहीं किया, इन सबों का विरोध नहीं किया। चर्वाक, गौतम बुद्ध हमारी ही भूमि के चरित्र हैं जिन्होंने सनातन की स्थापित विचार धाराओं पर कुठराघात करते हुए एक अलग विचार धारा को जन्म दिया और हमारे देश में ही फले-फूले भी।

          रामायण की महत्व पूर्ण नायिका सीता भी एक ऐसा ही चरित्र है। जिसके अनेक रूप हैं। अगर वह पतिव्रता है, तो वीरांगना भी है, समझदार और बलशाली है। जिस धनुष को भू-खंड के शूरवीर पूरी शक्ति लगाने के बावजूद हिला नहीं सके उसे खेल-खेल में उठा लिया। विनय और आदर्श की प्रतिमूर्ति है सीता। इसी  माह माँ सीता और भगवान राम का जन्म दिन है। सिया-राम को समर्पित है हमारा यह अंक।

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साबित करो तुम सीता हो

(कई वर्षों पहले किसी पत्रिका में डॉ.लता अग्रवाल का अपनी प्रताड़ित बेटी के नाम छपा एक छोटा सा पत्र आज अचानक सामने आ गया। उस पर आधारित)

          इतिहास ने सीता के रूप में एक ऐसा चरित्र तैयार किया है जिसे किसी भी दृष्टिकोण से देखें अद्वितीय है। एक ऐसा चरित्र जो न पहले हुआ न बाद में। एक भारतीय नारी के रूप में देखें या देवी के रूप में, ऐतिहासिक चरित्र या आधुनिक नारी की पथ-प्रदर्शिका के रूप में। सवाल तो सिर्फ इतना है कि आपकी नज़र जोड़ पर है या तोड़ पर।  आप उसे वीरांगना के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं या निरीह, प्रताड़ित नारी के रूप में। सीता में वह सब कुछ है जो एक आदर्श भारतीय गृहिणी में होना चाहिए, साथ ही आधुनिक शिक्षित नारी की समझ, शक्ति, साहस और धैर्य भी।

          हमारे यहां सदियों से समाज सीता के उस एक ही रूप को आदर्श मानकर उसी में संपूर्ण नारी की छवि देखना चाहता है जिसमें वह सीता है। आज समाज ने,  सीता की एक अबला की तस्वीर बना दी है, हर हालात में, खटते-घुटते-मरते हुए, घर-परिवार की सेवा करे, सभी के अनुरूप स्वयं को ढालती रहे। मगर यह अर्ध सत्य है, वे वास्तविक सीता के रूप की कभी चर्चा नहीं करते। हाँ, आवश्यकता पड़ने पर वह सब करे जिसकी समाज अपेक्षा रखता है अगर समाज भी उसी प्रकार प्रत्युतर दे तब। लेकिन अगर शोषण करे तब?  

          एक सीता वह थी, जिसने वैभव त्याग राम के संग जंगल की त्रासदी अपना कर अपने धैर्यवान, आत्मविश्वासी होने का परिचय दिया, वनवास को स्वीकार किया, जंगल में बच्चों को जन्म दिया।  अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना, बच्चों को शूरवीर और ज्ञानी बनाना एक अबला नहीं सबला का कार्य है। यही नहीं समझदारी से उसे प्रताड़ित करने वालों की न उसने भर्त्सना की न बातों में विरोध किया बल्कि अपने कार्यों से उसे निरस्त कर विजयी बनी। प्रतिकूल समय में भी अपना संतुलन न खो कर सही निर्णय लिया और समय को अपने अनुकूल बना लिया। ऐसा चरित्र प्रदर्शित किया कि उसे प्रताड़ित करने वाले भी उसकी आलोचना न कर सके। समय के अनुकूल आने पर बड़ी शालीनता से उनका साथ अस्वीकार कर दिया। सीता के इस संघर्ष पूर्ण और ताक़तवर रूप की चर्चा समाज ने कभी नहीं की।

          यह थी असली सीता, समयानुसार निर्णय ले अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। कथनी के बजाय करनी पर विश्वास रखा। अफ़सोस तो इस बात का है कि अज्ञानता ने जिन रूढ़िगत आस्थाओं को जन्म दिया वे समय के साथ निर्मूल होने के स्थान पर अधिक बलवती होती गई। स्वयं स्त्री अपने प्रति हुए इस षड्यंत्र से सचेत होने के बजाय उसे और ऑक्सीजन प्रदान कर रही है। करनी के बजाय कथनी का सहारा ले रही है। अब हमें सीता के उसी रूप से अपने परिवार को, समाज को  परिचित कराना होगा। धैर्य और विश्वास के साथ साबित करना होगा कि तुम सीता ही हो। मुझे विश्वास है आज की नारी में वह सीता विद्यमान है।

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सीता क्या सिखाती है आज?

         

          एक हिंदू परिवार में, अक्सर सुबह 'रघुपति राघव राजा राम' के जाप सुनती हुई मेरी नींद खुलती। मेरे दादाजी द्वारा सुनाई गई कई कहानियों में मेरे पसंदीदा कहानियाँ राम के साहसिक कारनामों के थे। मैं और मेरे चचेरे भाई अक्सर रसोई के बर्तनों को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करके इन साहसिक कार्यों को अंजाम देते थे। मेरे चचेरे भाई चाहते थे कि मैं सीता बनूं, लेकिन जिस भूमिका की मैं वास्तव में शौकीन थी वह थी राम की भूमिका। उनके कारनामे सबसे अच्छे थे क्योंकि उन्हें उन बंदरों से दोस्ती की जिनके पास विशेष शक्तियां थीं, जो उन्हें समुद्र के पार ले गए और अनगिनत दुष्ट राक्षसों को मार डाला।

          राम के चरित्र ने मुझे किशोरावस्था के दौरान आकर्षित किया। मैं अपने इस वीर और साहसी नायक को पूजती थी क्योंकि वह बहुत सारे अद्भुत गुणों से युक्त अवतार था। दशरथ के लिए वह प्यारा और आज्ञाकारी उत्तराधिकारी था; कौशल्या का एक देखभाल करने वाला और कोमल पुत्र। उनके भाई उनकी नायक मान कर पूजा करते थे। जब मैंने उस दृश्य को बार-बार पढ़ा, जहां वह अपने पिता की प्रतिज्ञा का शांति से पालन करते हुए, भरत को राजगद्दी सौंपते हुए, अयोध्या छोड़ देते हैं, इसे पढ़ कर मैं जार-जार रोती। लेकिन राम शांत और संयमित बने रहे। जब व्याकुल भरत उनके पास आता है, तो वह हमेशा की तरह उससे प्यार करते हैं लेकिन स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वह अपने पिता से किए गए वादे के खिलाफ नहीं जा सकते।

          मुझे विशेष रूप से वह दृश्य बहुत पसंद आया जहां राम की मुलाकात निषादों के राजा गुहा से होती है, और अयोध्या के राजकुमार और अपेक्षाकृत छोटी स्वदेशी जनजाति के इस शासक के मध्य एक दूसरे के प्रति प्रेम, सौहार्द और सम्मान है। राम ऋषियों के दयालु रक्षक का उत्तरदायित्व भी निभाते हैं। वे सुग्रीव को उसके राज्य को वापस पाने में मदद करते हैं। हालांकि इस जीत के लिए जिस तरीके से एक गुप्त स्थान से सुग्रीव के भाई बाली को तीर से मारा, इस घटना ने मुझे बहुत परेशान किया, लेकिन मैंने इसे पार कर लिया। इन सभी मामलों में, राम जाति या वर्ग या सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करते हैं। मैंने इसके लिए उनकी प्रशंसा की।

 

          वनवास के दौरान कैसे राम ने सीता की देखभाल की और उन्हें सुरक्षित और आरामदायक रखने की कोशिश की, कैसे अपने बेहतर फैसले के खिलाफ वह सोने का हिरण लाने गए क्योंकि सीता उसे चाहती थी। जब सीता का अपहरण कर लिया गया था तो वे कितने व्याकुल थे, कैसे उन्होंने सचमुच सीता को बचाने के लिए समुद्र को बांध दिया था। कैसे वे विजयी होकर अयोध्या लौटे और देवताओं के आशीर्वाद से उन्हें राजा और रानी का ताज पहनाया गया। बीच में एक समस्या थी, सीता की बेगुनाही का परीक्षण करने के लिए अग्नि परीक्षा, लेकिन अग्नि देवता द्वारा सीता के गुणों की घोषणा के साथ यह खुशी से समाप्त हो गई, इसलिए मैंने फिर से इसे नजरअंदाज कर दिया।

 

          राम एक अद्भुत राजा मर्यादा पुरूषोत्तम थे, उन्हें धर्म का सर्वोच्च आचरण करने वाला कहा जाता है। लेकिन जैसे ही मैंने नारीत्व में प्रवेश किया, कुछ अप्रत्याशित घटा। सीता के बारे में मेरे दृष्टिकोण में अभूतपूर्ण विलक्षण जागरूकता आ गई। मैंने अब उसे एक आज्ञाकारी बहू, एक विनम्र पत्नी के रूप में नहीं देखा जो जंगल में राम और लक्ष्मण के बीच चलती है और न ही एक ऐसी युवती के रूप में जो रावण के डर से रोती है। मैं अमर चित्र कथा और टीवी की रामायण से आगे बढ़ गई। मैंने वाल्मिकी, कंब, कृत्तिबास और अदभुत रामायण को पढ़ा। मुझे एहसास हुआ कि सीता वास्तव में कितनी शक्तिशाली थी, अपने अनोखे शांतिपूर्ण अंदाज में। मैं उसके पक्ष में क्रोध से भर गई क्योंकि मुझे यह एहसास हुआ कि जब वह गर्भवती थी तो राम ने उसे शहर की तीखी गपशप के कारण कितने गलत तरीके से वाल्मिकी के आश्रम में निर्वासित कर दिया था। राम के क्रूर परित्याग के बावजूद उसने कितनी शालीनता और साहसपूर्वक अपने बेटों को जंगल में पाला और अंत में कैसे उसने एक और अनुचित अग्नि परीक्षा से गुजरने से इनकार कर दिया।

          मैं सीता के राम से घृणा करना चाहती थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकी। पुस्तकों के व्याख्यान ने मुझे राम के बारे में एक अंतिम, जटिल अहसास कराया और यह सीता ही थीं जिन्होंने मुझे यह सिखाया था कि उनके साथ इतना कुछ घटित होने के बावजूद उन्होंने कभी भी राम से नफरत या उनका अनादर नहीं किया बल्कि वे हमेशा उनसे प्यार करती रहीं। क्योंकि वह उस कठिन पंथ को समझती थी जिसका सामना राम को करना पड़ा था। वह अपने दिल की इच्छा के साथ जा सकता था और निर्दोष सीता को अपनी प्यारी रानी के रूप में अपने साथ रख सकता था, भले ही इससे अयोध्या में कानून और व्यवस्था बाधित हो सकती थी। अपने पिता दशरथ के विपरीत, जिन्होंने कैकेयी की राम को निर्वासित करने की अनुचित मांग को स्वीकार कर लिया था, और वही किया जो राज्य के लिए सर्वोत्तम था भले ही इस कारण सीता और राम के हृदय के टुकड़े हो गए। उनके पास समझौता करने का कोई रास्ता नहीं था - ठीक उसी तरह जब सीता के पास भी कोई विकल्प नहीं था उन्होंने अखंडता का रास्ता चुना, अयोध्या में अग्नि परीक्षा देने से इनकार कर दिया और फिर से अपने पति और बच्चों से मिलने की आशा का परित्याग कर सदा के लिए धरती माँ के गोद में समा गई।

 

          यहां वह अंतिम सबक है जो मैंने राम और सीता की कालजयी कहानी से सीखी: कभी-कभी हमारी सार्वजनिक भूमिकाएं और मूल्य हमारी निजी भूमिकाओं और मूल्यों के साथ गहराई से टकराते हैं। कभी-कभी, दुनिया के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए, हमें अपने निकटतम और प्रियतम के प्रति लापरवाह, यहां तक कि क्रूर भी होना होगा। युद्ध के मैदान से लेकर बोर्डरूम तक, हर जगह नायक इस दुविधा का सामना करते रहते हैं। इसका समाधान कभी आसान नहीं होता।

 

          मैं राम और सीता की इस महान जोड़ी को सलाम करते हुए अपनी बात समाप्त करती हूं, जिनके पास आज भी हमें सिखाने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन मुझे सीता के बलिदान को पहले रखना होगा और कहना होगा, जय सियाराम!

(दिवाकरुनी की पुस्तक "द फॉरेस्ट ऑफ एनचांटमेंट्स' पर आधारित)

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https://youtu.be/wicxjVu5xjo

शुक्रवार, 1 मार्च 2024

सूतांजली मार्च 2024

 


मन और सोच का वास्तु ठीक करो।

अपने घर का वास्तु, अपने आप ठीक हो जाएगा ।

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कैसे सुधारें अपना व्यवसाय?   

         कोई भी भला इंसान रातों-रात धनवान नहीं बन सकता।  अतः इस बात पर विश्वास रखिए कि रातों-रात धनवान बनाने वाला हर रास्ता गलत रास्ता ही है।

वे जो अपना काम करते हैं वे ‘नौकर’ खोजते हैं लेकिन जो दूसरों का काम करते हैं वे ‘नौकरी’ खोजते हैं।  भारत के आर्थिक इतिहास में शायद यह पहली मर्तबा है कि भारत  सरकार, स्टार्ट अप इंडिया के अंतर्गत, नौकरी देने वालों को महत्व दे रही है। नौकरी खोजने के बजाय नौकरी देने वाला बनिये।

          अगर आप अपना कोई व्यवसाय-व्यापार  प्रारम्भ करना चाहते हैं तो पहला प्रश्न तो यही है कि कैसा व्यवसाय। यह प्रमुखतः हर व्यक्ति की अपनी क्षमता, ज्ञान और उपलब्ध संसाधनों पर ही निर्भर करता है कि वह कैसा व्यवसाय करे। लेकिन सब व्यवसाय-व्यापार का मूलभूत आधार एक ही होना चाहिए – मानव कल्याण की भावना।

          हर व्यापार का एक ही सिद्धान्त है - मेहनत, लगन और समय। इनका मूल नियम भी एक ही है – कम में लेना और ज्यादा में देना। इस लेन-देन के अंतर को ही लाभ कहते हैं और यह लाभ  कानूनी और नैतिक दोनों रूप में वैध भी है और आवश्यक भी। एक व्यापारी के लिए अपना व्यवसाय करना भी आध्यात्मिक विकास का एक सुअवसर है। इसका उपयोग करना या इसे बर्बाद करना खुद पर निर्भर करता है। कैसे समाज और देश का निर्माण करना है, यह भी आप पर ही निर्भर करता है। व्यवसाय शुरू करने के पहले, श्रीअरविंद से जुड़े डॉ. रमेश बीजलानी के इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं दें, आपको दिशा स्वतः ही मिल जाएगी।   

किस का व्यापार करें?

विचार करें कि क्या आपका व्यापार जरूरतमंदों की वास्तविक आवश्यकता को पूरा करेगा?

क्या यह स्वास्थ्य, नैतिकता, विकास को कुछ सकारात्मक बढ़ावा देगा?

क्या इसमें कुछ उत्पादन करना, सेवा प्रदान करना, उचित सलाह देना या मार्ग दर्शन करना है?

अथवा यह मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्तियों को पूरा करेगा और यह सिर्फ सट्टा है?

आपका व्यापार जीवन-प्रदान करता है या जीवन का क्षरण करता है?

याद रखें आपका व्यापार आपके विचार और चरित्र को भी दर्शाता है, और

आपके बच्चों को भी उसी पथ पर आगे बढ़ाता है।

 

ग्राहकों के प्रति कैसे विचार रखें?

क्या आप अपने  ग्राहकों के प्रति सद्भावना रखते हैं?

क्या आप अपने ग्राहकों को सिर्फ एक बटुआ (पर्स) मानते हैं जिसमें से जितना संभव हो उतना निचोड़ना है?

ग्राहक से अधिकतम लाभ लेना है या उसकी सर्वोत्तम सेवा करनी है?

क्या आप यह मानते हैं कि वह  हमें सेवा करने का अवसर दे रहा है और हमें उसे भरपूर सेवा प्रदान करनी है, या

यह मानते हैं कि  वह हम पर आश्रित है और हमें उसका शोषण करना है?

हमारी क्या ज़िम्मेदारी है?

क्या हमारी ज़िम्मेदारी केवल ग्राहक और शेयरधारकों के प्रति है?  या

समाज के प्रति भी है?

क्या उचित मूल्य पर सामान और सेवाएँ प्रदान करना पर्याप्त है, या

शेयरधारकों को अच्छा मुनाफा भी देना है? अथवा

हमें यह भी ध्यान रखना होगा और हमारी यह ज़िम्मेदारी भी बनती है कि हमारा व्यवसाय पर्यावरण का विनाश या उसे प्रदूषित न करे, और

समाज और देश के हित में हो?

श्रमिक, कर्मचारी एवं अन्य सहयोगी के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो?

क्या हमें उनकी आवश्यकता और लाचारी का शोषण करने से बचना चाहिए? और

उनके विकास के प्रति भी सजग रहना चाहिए?

प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के संबंध में हमारा क्या दृष्टिकोण है? 

क्या हम यह मानते हैं  कि हम जिस व्यवसाय में हैं, उसमें बने रहने का अधिकार हमारे प्रतिद्वंदियों को भी है?

क्या हमें अपना ध्यान अपने विकास पर रखना चाहिए या उनकी बरबादी पर?

क्या हम अकेले विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं?

क्या हम यह मानते हैं कि विश्व में सब की आवश्यकताओं की, उनके लालच की नहीं, पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं?

क्या आप यह मानते हैं कि प्रतिद्वंद्विता के बजाय सहयोग से अधिक उत्पाद संभव है?

करों का भुगतान करते समय हमारी क्या नीति है? 

क्या हम उतना भुगतान करते हैं जितना हमें करना चाहिए?

क्या हम इसे खुशी-खुशी करते हैं?

क्या हम यह मानते हैं कि सरकार को बुनियादी ढांचा तैयार करने में हमें मदद करनी चाहिए?

क्या हमें सरकार को कुछ हद तक समानता और सामाजिक न्याय हासिल करने में मदद करनी चाहिए?

क्या देश के लिए लाभ का एक हिस्सा खुशी-खुशी बिना छोड़े, सरकार यह कर पाएगी?

बिना कोई योगदान दिए सरकार से हमें कितनी उम्मीद रखनी चाहिए?

कितना लाभ कमाना और इसका क्या उपयोग करना?

हम कितने लाभ की आशा रखते हैं और उसका क्या सदुपयोग करते हैं?

क्या हम उचित लाभ से संतुष्ट हैं, अथवा

हम अनुचित लाभ कमाने के लिए ग्राहक को लूटने और उसकी अज्ञानता और लाचारी का फायदा उठाने की प्रवृत्ति रखते हैं?

क्या हम अपने लाभ को सिर्फ स्वयं की संपत्ति और उसका मालिक मानते हैं? या

हम खुद को उस संपत्ति के ट्रस्टी के रूप में मानते हैं?

क्या हमें यह एहसास है कि पैसा कमाना भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त अल्प लोगों को दी गई एक प्रतिभा है? और

इसके लिए ईश्वर के आभारी हैं?

अपनी योग्यता से अधिक पाने / खोने के पीछे किसका हाथ मानते हैं?

अपनी अप्रत्याशित सफलता या असफलता पर हमारी कैसी प्रतिक्रिया होती है?

क्या आप यह मानते हैं कि व्यापार में यह दोनों ही स्वाभाविक हैं, और सच पूछा जाए तो ये हमारी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हैं?

जब हमें अप्रत्याशित सफलता प्राप्त होती है तब क्या हमें यह अनुभव होता है कि यह हमारी काबिलीयत से ज्यादा है?

क्या हम इस सत्य के प्रति संवेदनशील हैं कि हमसे ज्यादा काबिलीयत और मेहनती लोगों को हमसे कम सफलता मिली है?

अगर ऐसा है तब क्या हम इसके पीछे प्रभु का प्रेम देखते हैं? और

तब क्या हम अपनी कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में अपनी सफलता का फल उन लोगों के साथ साझा करने के लिए तैयार हैं जो हमसे कम भाग्यशाली रहे? और

यदि हमें कोई झटका लगता है, तो क्या हम इसके पीछे ईश्वरीय प्रेम को भी देखते हैं, जो हमें संकेत दे रहे हैं कि अब से जीवन किस रास्ते पर जाना चाहिए?

क्या आप मानते हैं कि ईश्वर के करीब जाना एक ऐसा लाभ है जिसके लिए भौतिक हानि बहुत बड़ी कीमत नहीं है।

कुल मिलाकर हमारा दृष्टिकोण क्या है? 

क्या हम ईश्वर के उपकरण होने के प्रति सचेत हैं?

क्या हम कार्य करने में सक्षम बनाने वाली प्रतिभाएँ, योग्यताएँ और परिस्थितियाँ देने के लिए ईश्वर के प्रति आभारी हैं?

क्या उस अदृश्य हाथ के प्रति सचेत हैं जिसके बिना हम सफल नहीं हो सकते? और

क्या अपनी असफलता में किसी को दोष देने के बजाय किसी बड़ी, उच्चतर और व्यापक चीज़ का बीज देखते हैं?

          यह चर्चा केवल प्रश्न उठाती है, उत्तर नहीं दे रही है। क्योंकि, हर कोई जानता है कि उत्तर क्या होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, सही चुनाव करने का ज्ञान हमारे भीतर है। आध्यात्मिकता के पुट के साथ भौतिकता के  विकास की ओर ले जाने वाले विकल्पों को चुनने की प्रतिभा हमारे भीतर है। विभिन्न प्रलोभनों के कारण, हम सही का ज्ञान होने के बावजूद, उचित चुनाव करने में अकसर  असफल हो जाते हैं। हमारी बुद्धि हमारी निम्न प्रकृति पर हावी हो जाती है, और हमें सही चुनाव न करने का ज्ञान देती है। भावनाएँ और बुद्धि इतना शोर मचाती हैं कि सबसे गहरे आत्मा की शर्मीली और फीकी आवाज छिप जाती है, और हम उसे नजर अंदाज कर देते हैं। इसे नजर अंदाज करने से हमें धन, शक्ति, नाम और प्रसिद्धि का लाभ हो सकता है, लेकिन इसे नजर अंदाज करने से हम मानसिक और भौतिक शांति खो देते हैं क्योंकि इससे समाज में एक गलत परंपरा, दोष, अपराध, शारीरिक और मानसिक रोग फैलता है और हम खुद भी उसकी चपेट में आते हैं। प्रत्येक गलत विकल्प के साथ, हम एक कदम पीछे हटते हैं।

          कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को उद्धृत करूँ तो -

“न जाने कब से सुनता आ रहा हूँ – तार्किकता का युग अपने साथ खुशियाँ लाएगा, विज्ञान दुनिया में शांति स्थापित करेगा, आवश्यकताओं की वृद्धि उनकी पूर्ति के साधन उपलब्ध कराएगी। पर क्या ऐसा हुआ? सच तो यह है कि इन सब चीजों का आना और दूभर होता जा रहा है। ... क्या यह कहा जा सकता है कि पिछले दस-बीस दशकों में मनुष्य बेहतरी की तरफ बढ़ा है? ... बेहतरी के लिए परिवर्तन का मतलब होता है मनुष्य का उच्च आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों की ओर बढ़ने की इच्छा से परिचालित होना। क्या ऐसा हो रहा है?...”

          क्यों नहीं हुआ ऐसा? हमने अपने कारोबार को, व्यवसाय को, उद्योग को, पेशे को धंधा बना लिया। अकाउंटेंट करों की चोरी कराने लगे, उद्योग तंबाखू, हथियार, नशीले पदार्थ बनाने लगे, वकील दोषियों को छुड़ाने में लग गए, व्यापारी ग्राहकों को लूटने और उनकी मजबूरी का फायदा उठाने में लग गए, डॉक्टर मरीजों का उपचार करने के बजाय उन्हें धन कमाने की मशीन के रूप में देखने में लग गए। हम लालच के दलदल में बुरी तरह फंस कर अनुचित लाभ कमाने की होड़ में लग गए। रक्षक ही भक्षक बन गये।

अपने व्यापार में सात्विकता का तड़का लगाने के बजाय उसमें से सात्विकता को निचोड़ कर निकाल दिया।  सात्विकता के साथ किए हुए व्यापार से तनाव उत्पन्न नहीं होता। इसके विपरीत हमने अपने मन को समझा दिया कि बिना बेईमानी के व्यापार नहीं चल सकता और ईमानदारी को कुएँ में डाल दिया। हमने यह अंगीकार कर लिया कि व्यापार का मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी भौतिक आवश्यकताओं का ही नहीं बल्कि लालच की पूर्ति ही है, इसमें सात्विकता का कोई स्थान नहीं।

आध्यात्मिकता को जीवन के हर अंग में अपनाया जा सकता है। आध्यात्मिकता को हर व्यवसाय में लाया जा सकता है। आध्यात्मिकता का अभ्यास करना सभी का सर्वोत्तम व्यवसाय है। व्यवसाय में आध्यात्मिकता का समावेश हमें एक बेहतर समाज, बेहतर देश और बेहतर जगत प्रदान करता है। हमें बेहतर जीवन के लिए प्रेरित होना होगा, स्वयं को बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि व्यापार में भी सात्विकता हो सकती है, कुछ आध्यात्मिकता हो सकती है, मानवता हो सकती है।

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लघु कहानी जो सिखाती है जीना                                पाप का गुरु

          कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद एक पंडित अपने गांव लौटा। गाँव के एक किसान ने उनसे पूछा, ‘पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?’ प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए, भौतिक व आध्यात्मिक गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप का भी गुरु होता है? यह उनकी समझ और अध्ययन के बाहर था।

          पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा है इसलिए वे फिर काशी लौटे, अनेक गुरुओं से मिले। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हो गई। उसने पंडितजी से उनकी परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।

          वेश्या बोली, ‘पंडित जी, इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान, लेकिन इसके लिए कुछ दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा। पंडित जी के हाँ कहने पर उसने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। इस प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से बीते लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। एक दिन वेश्या बोली, ‘पंडित जी  आपको बहुत तकलीफ होती है खाना बनाने में यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं, आप कहें तो मैं नहा धोकर आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं। अगर आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी।स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया।

          इस लोभ में पंडित जी अपना नियम व्रत आचार विचार धर्म सब कुछ भूल गए। पंडित जी ने हामी भर दी और वेश्या से बोले, ‘ठीक है तुम्हारी जैसी इच्छा लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि कोई तुम्हें मेरी कोठी में आते-जाते देखे नहीं। वेश्या ने पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बना कर पंडित जी के सामने परोस दिया। पर ज्यों ही पंडित जी खाने को तत्पर हुए, त्यों ही वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली। इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है? वेश्या ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है, यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।

मछली आटे के लोभ में आकर अपना गला फंसा देती है।

भौंरा सुगन्धी के लोभ में आकर कमल में बन्द हो अपनी जान से हाथ धो बैठता है !

प्रकाश के लोभ में आकर पतंगा जान दे बैठता है!

दान चुगने के लोभ में आकर पक्षी जाल में फंस जाते हैं!

अब पशु पक्षी थोड़े से प्रलोभन में आकर बंधन में पड़ कर प्राण दे बैठते हैं तो हम तो पूर्णतया लोभ कषाय में ही रंगे हुए हैं हमारी न जाने क्या दशा होगी।

अगर संसार के चक्कर से बचना चाहते हैं, कर्मों की कुण्डी खोलना चाहते हैं, शांति स्वरूप को प्राप्त कर चलना चाहते हैं मुक्ति पथ की ओर, तो इस संसार के महा पिशाच लोभ का त्याग इसी क्षण कर दें!

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https://youtu.be/E1oAihNk9q0

सूतांजली मई 2024

  गलत गलत है , भले ही उसे सब कर रहे हों।                     सही सही है , भले ही उसे कोई न कर रहा हो।                                 ...