बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

सूतांजली अक्तूबर (प्रथम) 2025

 


भय दासता है, 

                                        कार्य स्वतन्त्रता है,

                                                                      साहस विजय है।

                                                                                                    श्री माँ (पांडिचेरी )

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सत्याग्रह

हमारे पूर्वज अपने किसी भी सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत का प्रयोग करते थे। हमारे प्राचीन ग्रंथ ऐसे दृष्टांत से भरे हुए हैं। कहीं सिद्धांत पहले है फिर दृष्टांत तो कहीं दृष्टांत पहले और फिर सिद्धांत।

यह दृष्टांत, कहानी या उपमा न होकर एक सत्य घटना ही है जो कुछ वर्षों पहले ही जयपुर के सबसे बड़े अस्पताल, सवाई मानसिंह अस्पताल में घटी थी। डॉ. वीरेंद्र सिंह अस्पताल के अधीक्षक थे और गांधी के सत्याग्रह में उनका गहरा विश्वास था। अधीक्षक बनने के कुछ समय बाद ही अस्पताल के ठेका कर्मचारियों ने एक दिन की नोटिस देकर अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दीठेका कर्मचारियों की मुख्य मांग थी, पैसे बढ़ाओ!

          ठेके के कर्मचारियों के भुगतान के नियम राजस्थान प्रदेश के समस्त सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के लिए समान होते हैं। अतः अकेले सवाई मानसिंह अस्पताल के ठेका कर्मचारियों के पैसे बढ़ाने की बात समझ से बाहर थीपैसों के अलावा उनकी सारी मांगें मानने में अधीक्षक को कोई भी कठिनाई नहीं थीयह निर्णय भी हुआ कि तनख्वाह का निर्णय एक कमिटी पर छोड़, बाकी मांगें मान ली जाएठेकाकर्मियों ने समझौता स्वीकार भी कर लिया। समझौता सम्पन्न भी हुआ। लेकिन फिर कर्मियों का मन पलट गया, उन्हें लगा तनख्वाह बढ़ाने की  मांग भी स्वीकार हो जाएगी। अतः हड़ताल भी तभी खत्म करेंगे। अस्पताल के अध्यक्ष डॉ.सिंह को लगा कि उन्हें ठगा गया है और उन्होंने निश्चय किया कि अब तो हड़ताल का मुकाबला करेंगे

दूसरे दिन सफाई कर्मचारी भी हड़ताल में शामिल हो गएनगर निगम से बात की लेकिन मदद नहीं मिलीचीफ सेक्रेटरी से बात की तो उन्होंने नगर निगम को सफाई कर्मचारी भेजने के आदेश दिए लेकिन जब नगर निगम की वैन  कर्मचारियों को लेकर आई तो हड़ताली कर्मचारियों ने उनके खिलाफ नारे लगाए, उनसे बातचीत की और वे सभी बिना काम किये लौट गए

          अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारियों ने राय दी कि पुलिस की मदद से कर्मचारियों को हटाया जाए। लेकिन अध्यक्ष बल प्रयोग के पक्ष में नहीं थे। हड़ताल के मुकाबले के लिए प्रथम चरण में कुछ छात्रों को कुछ समय कम्प्युटर पर बैठाया गया, फिर रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन ने गोखले हॉस्टल एवं इंजीनियरिंग के छात्रों की मदद लीआइ. टी. सचिव ने भी 20 लोगों को भेज दियाउसी समय ई.टीवी और अखबार में दर्शकों और पाठकों से अपील करते हुए अध्यक्ष ने अनुरोध किया ‘वर्षों तक बीमारी में आपके सहायक न सवाई मानसिंह अस्पताल को आज आपकी जरूरत है आप स्वैच्छिक काम के लिए आमंत्रित हैं  रोगियों की वेदना की बात सुन, जयपुर की जनता में संवेदना जागृत हुई पहले दिन 10 लोग आए, दूसरे दिन तो लोगों का तांता लग गया जन सहयोग की इस अनूठी पहल ने अस्पताल-व्यवस्था  चरमराने से बच गई।

          छठे दिन हड़ताली कर्मचारियों में बेचैनी फैलने लगी और शाम तक उनका प्रतिनिधि मंडल समझौते के लिए तैयार हो गया। उन्हें काम पर आने कहा गया तो उन्होंने लिखकर देने कहा। लेकिन अध्यक्ष डॉ.सिंह ने इंकार कर दिया। उन्हें पहले हस्ताक्षर के हश्र के बाद दूसरा हस्ताक्षर करना उचित नहीं लगा। डॉ.सिंह अडिग रहे। हड़ताल जारी रहीस्वयंसेवकों ने अस्पताल की व्यवस्था संभाल ही रखी थी

          रात को हड़ताली नेता आए। डॉ.सिंह ने इनकार करते हुआ कहा, "अब मैं तुमसे नहीं, सारे हड़ताली कर्मचारियों से बात करूंगासुबह सबको ऑडिटोरियम में इकट्ठे करो।" ऑडिटोरियम में करीब 800 लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने हड़ताल की बात न करके बीड़ी, सिगरेट, शराब जैसे नशीली चीजों के हानिकारक असर पर आधे घंटे का स्लाइड प्रोग्राम दिखायाअंत में कहा पिछले 8 दिनों की हड़ताल में न तुम्हारा कुछ बिगड़ा, न हमारा कुछ बिगड़ा बिगड़ा उन दुखी रोगियों का, जो यहां इलाज की उम्मीद में भर्ती हुएमांगों पर तो बातचीत से ही समाधान निकलेगा, हड़ताल से नहींहड़ताल-रूपी गलती का आपको प्रायश्चित करना चाहिए

          ‘प्रायश्चित! कैसे प्रायश्चित?’, कर्मियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

          अध्यक्ष ने पांच बातें बताई : चोरी नहीं, कामचोरी नहीं, यूनीफॉर्म में रहें, रोगियों से मृदु बोलें, तथा बीड़ी, गुटका और शराब का सेवन नहीं करेंइन 5 बातों को जीवन में उतारने की प्रतिज्ञा लें?

          सबों ने स्वीकार किया और लिखित भी दे दिया। डॉ सिंह ने पैसे बढ़ाने के लिए सतत प्रयास का वादा कियाकर्मचारियों के जायज हक के लिए अध्यक्ष प्रयत्नशील रहे लेकिन रोगियों के जीवन को खतरे में डालकर हड़ताल जैसे ब्लैकमेल के सामने झुकने को तैयार नहीं हुए। इस कठिन घड़ी में जयपुर की जनता के दिल में रोगियों की वेदना ने संवदेना जागृत की और वे स्वयंसेवक बन आगे आए प्रेस ने इस घटना का उल्लेख 'सवाई मानसिंह अस्पताल में निकला सत्याग्रह से हड़ताल का इलाज' के शीर्षक से किया।

          यह था दृष्टांत, अगले अंक में सिद्धान्त

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गुरुवार, 11 सितंबर 2025

सूतांजली सितंबर द्वितीय 2025


 प्रेत के सहयोग से ईष्टदेव के दर्शन

(महाभक्त विजयम में तुलसीदास की जीवनी उपलब्ध है। उसमें महान संत तुलसीदास के भगवान राम के दर्शन की चर्चा है।)

          तुलसीदासजी के पवित्र स्पर्श से एक प्रेत स्त्री पवित्र होकर मुक्त हो जाती है। प्रेत, अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के रूप में तुलसीदास को एक वरदान देना चाहती है। आश्चर्यचकित एवं रुष्ट  हो कर तुलसीदासजी  कहते हैं, "क्या एक प्रेत मेरे को भगवान राम के साक्षात दर्शन कराएगी?" लेकिन प्रेत प्रेमपूर्वक कहती है, "आप भगवान राम के दर्शन करना चाहते हैं तो मेरे साथ आयें, मैं आपकी इच्छा पूरी करने ले चलती हूँ।" तुलसीदास ने तिरस्कारपूर्वक उसे जाने के लिए कहते हैं, "जाओ, मैं तुम्हारे साथ अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहता।”

          लेकिन प्रेत अपने अनुरोध पर कायम रही, "हे कुलीन ब्राह्मण! बाहरी दिखावे के आधार पर किसी को छोटा मत समझिए। कोई अपनी आँखों की संकीर्ण दरार से एक विशाल पर्वत को भी देख सकता है। इसी तरह, आपको  मेरे माध्यम से हरि के दर्शन होंगे, चाहे मैं शापित ही क्यों न हूँ। मुझ पर भरोसा रखो। मैं तुम्हें अपने मुखिया के पास ले चलती हूं।

          "अरे शैतान", तुलसीदास ने कुपित होकर कहा, "यदि तुम मेरे लिए हरि के दर्शन की सुविधा प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुम खुद अमानवीय स्तर पर क्यों रहती हो?'

          "हे विद्वान ब्राह्मण! प्रत्येक व्यक्ति को अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप नियति का भोग करना ही पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति धर्म के सभी नियमों को जानता भी हो, तो भी यदि वह धन और भौतिक वस्तुओं में आसक्त है, तो क्या वह अपने निर्णय में निष्पक्ष रह सकता है? यदि कोई व्यक्ति सही और गलत में विवेक कर सकता है, तो भी यदि वह अनैतिक आचरण में लिप्त है, तो क्या वह धर्म के मार्ग पर चल सकता है? इसी प्रकार, यदि मैं भगवान के चरणों की प्राप्ति का उपाय जानती हूँ, तो भी मेरे पूर्व कर्म मुझे लज्जित और विवश करते हैं। तथापि, आपकी कृपा ने मुझे पवित्र कर दिया है।"

          तुलसीदास विचारमग्न हो गये, उन्हें लगा यह भूत आध्यात्मिक सच्चाइयों से भली-भांति परिचित है। हमें किसी व्यक्ति को दिखावे के आधार पर कम नहीं आंकना चाहिए, बल्कि उसके आंतरिक मूल्य के आधार पर उसका मूल्यांकन करना चाहिए। मुझे इसका प्रस्ताव नहीं ठुकराना चाहिये। और वे उसके साथ उसके मुखिया से मिलने चल पड़े।

          भूत ने मधुर गीतों से मुखिया की स्तुति करते हुए सहायता के लिये प्रार्थना की। भूतों के सरदार की अशरीरी आवाज ने आने का कारण पूछा। भूत ने कहा, "हे मुखिया, इस पूज्य ब्राह्मण ने मुझे मेरे श्राप से मुक्त कर दिया है। मैं उनका आशीर्वाद एक उपकार के साथ लौटाना चाहती हूं। ये भगवान हरि के दर्शन के लिए तरस रहे हैं। क्या आप इसकी व्यवस्था कर सकते हैं?"

          "मुझमें उसे भगवान के दर्शन कराने की शक्ति नहीं है। लेकिन मैं उसे श्री हनुमान के पास ले जा सकता हूँ जो निश्चित रूप से उसे भगवान के दर्शन करा सकते हैं। लेकिन क्या ये ब्राह्मण श्री हनुमान के दर्शन के योग्य हैं?" मुखिया ने कहा।

          भूत ने मुखिया को तुलसीदास का परिचय दिया, “विप्रवर बारह वर्षों से अधिक समय तक शरीर और दुनिया से अनासक्त रहे और इनका मन केवल भगवान की इच्छा से ग्रस्त है।”

          प्रमुख ने कहा, "वाराणसी के इस शहर में, असी गली में, एक वृद्ध पंडित हर दिन वाल्मिकी रामायण में निहित गूढ़ सत्य पर प्रवचन देते हैं। हनुमान प्रतिदिन एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में प्रवचन में आते हैं, आप वहां श्री हनुमान के दर्शन कर सकते हैं।”

          तुलसीदास ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा, "श्री हनुमान एक महान व्याकरणविद्, वेदांत के विद्वान, चौंसठ सिद्धियों के स्वामी और भगवान के परम भक्त हैं। यह हास्यास्पद लगता है कि ऐसे महान व्यक्ति प्रतिदिन मात्र एक  ब्राह्मण के रामायण के प्रवचन में उपस्थिति रहेंगे? यह मेरी ही मूर्खता है कि ईश्वर दर्शन पाने के लिए मैंने प्रेत से मार्गदर्शन पाने की इच्छा से यहाँ चला आया।"

          लेकिन नाराज न होकर मुखिया ने ब्राह्मण को प्रणाम किया और आदरपूर्वक कहा, "हे महान गुणी ब्राह्मण! जहाँ भी साधु इकट्ठे होते हैं और भगवान की महिमा का गुणगान करते हैं और उन्हें प्रसन्न करने वाले वचन बोलते हैं, वहाँ भगवान स्वयं मौजूद होते हैं। यह महान संतों का दावा है। क्या आप इससे इनकार कर सकते हैं? मैं मिथ्या वचन नहीं बोलता। तीन दिन बाद आपको भगवान के चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त होगा।"

          तुलसीदास को सनसनी का अनुभव हुआ। वे रोमांचित हो उठे। खुशी के आंसू बहाते हुए उन्होंने पूछा, "हे प्रेतों के सरदार, वहां इकट्ठे हुए कई ब्राह्मणों के बीच मैं श्री हनुमान को कैसे पहचानूंगा?"

          प्रमुख ने कहा, "हर दिन, श्री हनुमान सर्वप्रथम आते हैं और सबसे बाद में निकलते हैं। इसके अलावा, जब भी वे लोगों को 'राम, राम' की जयकार करते सुनते हैं, तब वे आत्म विभोर हो जाते हैं। ये वे संकेत हैं जिनसे आप उन्हें पहचान सकते हैं।" ये संकेत देने के बाद दोनों प्रेत अदृश्य हो गये।

          तुलसीदास ब्राह्मण के वेश में हनुमान को पहचाने गये। लेकिन हनुमान तुलसीदास की आँख बचा कर निकल गये। लेकिन संत तुलसीदास ने उनका पीछा किया और वे जहां भी जाते उनके पीछे-पीछे वे भी पहुँच जाते। हनुमान चिढ़ने और क्रोधित होने का नाटक करते हुए, तुलसीदास को डांटते और धमकाते हैं, और चेतावनी देते हैं, "यदि तुम दोबारा आकर मुझे परेशान करोगे, तो मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।" लेकिन तुलसीदास ने जिद्दी और दृढ़ हठ के साथ हनुमान का पीछा किया। अंत में हनुमान को दया आ गई। हनुमान के पूछने पर  तुलसीदास ने भगवान राम के दर्शन की इच्छा व्यक्त की। हनुमान कहते हैं, "आप निराकार, अदृश्य और सर्वव्यापी भगवान राम के दर्शन कैसे कर सकते हैं, जो हर जगह मौजूद हैं और साथ ही अंतरिक्ष से परे सारी सृष्टि से ऊपर खड़े हैं।” तुलसीदास जवाब देते हैं, “लेकिन वही सर्वोच्च निराकार भगवान ने मानवीय रूप में राम के नाम से जन्म लिया था, मैं भगवान के उसी राम स्वरूप दर्शन करना चाहता हूं।'' और हनुमान की कृपा से तुलसीदास को अपने चुने हुए इष्ट देवता के साक्षात दर्शन हुए।

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सोमवार, 1 सितंबर 2025

सूतांजली सितंबर प्रथम 2025

 



समझदारी

 सड़क किनारे खड़ी है,

हम सबों को खुलेआम पुकारती  है,

लेकिन

हम उसे एक भ्रम समझकर

नजरंदाज कर बैठते हैं।

 

खालील जिब्रान

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तब! .... कब? ....

          मान लीजिए आप किसी ऐसे प्रदेश में पहुँच जाते है जहाँ के लोग नहीं मानते कि दो और दो चार होते हैं। उनमें से कुछ का कहना है कि दो और दो तीन होते हैं लेकिन कुछ कहते हैं पाँच। कुछ औरों के विचार से दो और दो सात होते हैं। और कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि अभी किसी को भी नहीं पता कि दो और दो कितने होते हैं। इस पर विद्वानों को कहना है कि अभी इस पर गहन अनुसंधान करने की ज़रूरत है। लेकिन कट्टरपंथी तो यह फरमान निकाल देते हैं कि जब तक अनुसंधान पूरा न हो जाये तब तक किसी को भी दो और दो के योग के बारे में अपनी राय नहीं देनी चाहिये। और प्रशासन इस पर  कठोर कानून बना देता है।

          ऐसे लोगों के बीच अपने आपको पाकर आप क्या करेंगे? क्या आप नारेबाज़ी करेंगे? संगठन बनाकर आंदोलन करेंगे, हड़ताल करेंगे और जुलूस निकलेंगे? धरना देंगे? इश्तहार निकालेंगे? सत्ता दल से मिलकर संसद में बिल पास करवाएँगे, या उच्चतम न्यायालय के पास जाएंगे? या फिर........ या फिर आप शांत भाव से, पूर्ण आत्मविश्वास से  अपनी बात कहते रहेंगे इस आशा के साथ कि  शायद उन लोगों के बीच कभी कुछ ऐसे व्यक्ति निकलें जो समझ सकें कि दो और दो वास्तव में चार होते हैं।

          भारतीय चिंतन के विषय में ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। भारतीय चिंतन को बिना साधना के नहीं समझा जा सकता। यह चिंतन अवश्य ही शब्दों में प्रकट किया गया है क्योंकि देश और काल के अंतराल में संप्रेषण के लिए शब्दों के सिवाय और कोई चारा नहीं है। पर शब्द सत्य का केवल संकेतभर करते हैं, शब्द स्वयं सत्य नहीं है। शब्दों की अपनी सीमाएं हैं। शायद इसी कारण हजारों वर्ष तक ऋषियों ने कभी भी अपने चिंतन को लिपिबद्ध करने का प्रयास नहीं किया, वे श्रुति और स्मृति में ही रहे। कुछ लोग भारतीय चिंतन के किसी पक्ष के कुछ शब्दों को लेकर आग्रही हो जाते हैं कि उनके पास ही भारतीय चिंतन का संपूर्ण सत्य है। वे यहाँ-वहाँ से उद्धरण देते हैं, जोशीली बहस करते हैं और औरों को अपने मत का अनुयायी बनाने का भरसक प्रयत्न करते हैं।

          ज्यों-ज्यों आप सत्य के निकट पहुँचते जाएँगे, त्यो-त्यों आपको शब्दों की सीमा का आभास होता जाएगा। आप स्पष्ट देखने लगेंगे कि शब्दों में बहस करने से आप सत्य नहीं जान सकते क्योंकि शब्द और भाषा स्वयं विशाल सत्य के बहुत छोटे से अंश हैं। सत्य को जानने के लिए आपको अपने अंदर की शांत गहराई में जाना होगा जहाँ शब्दों का जन्म होता है। ताओ ने कहा है कि सत्य कहा नहीं जा सकता, जैसे ही आप सत्य कहने का प्रयास करते हैं, कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ छूट जाता है या जुड़ जाता है। इसमें कठिनाई होती है। जिन व्यक्तियों ने कभी अपनी आँखें बंद करके ध्यान का अभ्यास नहीं किया है उनके लिए यह जानना कठिन है कि मनुष्य का वास्तविक जीवन उसके अंदर से नियंत्रित होता है। हमारी सभी सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का स्रोत विभिन्न मनुष्यों के अंदर विद्यमान अनुभूतियों और उनसे नियंत्रित विचारों में है। उस आंतरिक जगत को जानकर ही हम बाहरी जगत् की समस्याओं को समझ और सुलझा सकते हैं।

          आपके चारों ओर बहस और नारेबाज़ी का वातावरण बना रहा रहेगा। आप उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं कर सकते। पर यदि आप जानते हैं कि आप सही राह पर हैं तो आप बिना परेशान हुए अपना काम करते रहेंगे, वैसे ही जैसे यदि आप अपने आपको ऐसे लोगों से घिरा पाएँ कि जो मानने को तैयार नहीं हैं कि दो और दो चार होते हैं। आप परेशान नहीं होंगे क्योंकि यदि लोगों में सत्य को जानने की चाह है तो किसी-न-किसी दिन वे जान लेंगे कि दो और दो चार होते हैं। आप स्थिर भाव से औरों तक अपने विचार पहुँचाने का प्रयास करते रहेंगे, और सदा शान्त और प्रसन्न रहेंगे।

          सत्य के कारण गैलीलियो को उसी के घर में मृत्यु पर्यंत नज़रबंद कर दिया गया, ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ा दिया गया और मीरा को जहर का प्याला पीना पड़ा। लेकिन वे सत्य जानते थे और उसे दोहराते रहे। शांत और प्रसन्न रहे।

          लेकिन यह तब, जब आप जानते हों कि दो और दो चार होते हैं

(अनिल विद्यालंकार के लेख पर आधारित)

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शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

सूतांजली अगस्त 2025

 




... यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था।

लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे, लड़ने को तैयार थे।

तो आजादी चरखे से नहीं आई,

उस सैलाब से आई !

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सुनो-सुनो,

आजादी चरखे से नहीं आई !

          हाँ, यह सच है कि आजादी चरखे से नहीं आई!

          यह उस सैलाब से आई जो उस चरखे ने लाई।

          आज (2024 में) देश में 1330 जेलें हैं जिनमें 5.25 लाख कैदी बंद हैं। यह हाल तब है जब उनमें अपनी क्षमता से दो-तीन गुना ज्यादा कैदी बंद हैं। 1920 में या 1940 में देश में कितनी जेलें होंगी? उन जेलों की क्षमता कितनी होगी? तब देश की जनसंख्या कुल 32 करोड़ थी। अगर उनमें से 1% लोग भी जेल जाने को तैयार हो जाते तो 32 लाख लोग जेलों में बंद होते। जेल मुफ्त छात्रावास की तरह होते हैं। आपका खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, दवा-दारू सब की जिम्मेदारी सरकार की होती है। फिर भी कोई जेल जाना नहीं चाहता है क्योंकि जेल जाने से नहीं, डर लगता है जेल जाने का ठप्पा लगने से! इधर ठप्पा लगा और उधर सारा मान-सम्मान चला गया! इसलिए जेल डराती है। पर हुआ ऐसा कि उस बूढ़े ने हवा ही बदल दी : जेल जाना इज्जत की बात बना दी! हाल यह है कि जिनके दादे-परदादे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, कभी जेल गए थे, उनके वंशज आज भी उनका नाम सीना फुलाकर बताते हैं। तो यह गांधी की करामात थी, जिसने उस दौर में आम आदमी का जेल जाना इज्जत का सबब बना दिया। ऐसा क्यों किया उन्होंने? इसलिए कि वे भारत के मन से भय निकालना चाहते थे, अंग्रेजी आतंक का गुब्बारा फोड़ना चाहते थे। इसलिए जेलें भरना चाहते थे।

          भारतीयों में यह जज्बा जगाने के लिए गांधी स्वयं जेल जाते रहे। कांग्रेस का हर बड़ा नेता जेल जाता रहा। जेल नहीं गए तो कैसे नेता हो जी! लेकिन जेल जाने के लिए अपराध भी तो करना चाहिए! कैसा अपराध करें? थाने जलाएं, कलक्टर, एसपी, पटवारी को मारें? अरे नहीं, गांधी ने कहा नमक कानून तोड़ो; गली-गली, चौक-चौराहे नारे लगाओ, तिरंगा फहराओ! गिरफ्तार हो जाओ। सरकारी धाराओं का उल्लंघन करो, राजद्रोही भाषण दो, पर्चे लिखो, अखबार चलाओ, गिरफ्तार हो जाओ। शराब की दुकानें खुलने मत दो, मार खाओ, गिरफ्तार हो जाओ। इन सबके बीच पवित्र अहिंसा का संदेश, आपके अपराध को जघन्यता की तरफ न जाने देने के लिए था। यह अंग्रेजों का नहीं, आपका सुरक्षा चक्र था। क्योंकि जहां आप जघन्यता की तरफ बढ़े, फंसे। अंग्रेज़ तो चाहते ही थे कि आप जघन्यता की तरफ बढ़ें।  आप मारें, तो वे भी मारें।

          और चरखा? मन मजबूत करने का तार बुनता था। सुबह बैठकर प्रार्थना करते हैं, तो ईश्वर को समीप पाते हैं। फिर वह दिन भर साथ रहता है। वह आपकी मानसिकता (साइकोलॉजी) में बैठा रहता है और आपको संबल प्रदान करता रहता है। ऐसा ही चरखा भी था। सुबह चरखा चलाइए, गांधी आपके समीप आ जाएंगे। आजादी का जज्बा भीतर बैठ जाएगा। आप हर वक्त अंग्रेजों की न-कार और राष्ट्रभाव के स-कार में रहेंगे। चरखा द्रोण की मूर्ति बन गया। आप एकलव्य की तरह, हर पल आजादी के संधान का अभ्यास करेंगे। लिखने, बोलने, प्रदर्शन में जाने, पिटने, जेल भरने को तैयार होंगे, क्योंकि चरखा साथ  है। देश में करोड़ों लोग चरखा चला रहे थे, वे कपड़ा नहीं बना रहे थे भाई साहब, वे तकली के हर घुमाव के साथ अपने भीतर स्टील के तार बुन रहे थे। 1942 में क्या देखा कि देश के कोने-कोने से गांधी निकल आए : बलिया के गांधी, गया के गांधी, पटना के गांधी, मुंबई के गांधी, मद्रास के गांधी, केरल के गांधी... कोई गांव-शहर-प्रदेश बचा नहीं जिसके पास अपना गांधी नहीं था। जिसके सिर पर सफेद टोपी, वही गांधी। कहीं कोई भटका, लड़खड़ाया तो मोहनदास गांधी तो मौजूद ही था।

          इस जन सैलाब के सामने अंग्रेज़ एक ही दीवार खड़ी कर सकते थे - सेना की दीवार! लेकिन उस दीवार में स्पष्ट दरारें पड़ने लगी थीं। अंग्रेजों और उनके वफादार भारतीय सैनिकों के बीच की डोर जगह-जगह टूट गई थी। आजाद हिंद फौज के अफसरों पर लाल किला का मुकदमा उलटा पड़ा था।  नेवी का विद्रोह व्यापक ही नहीं था, गहरा भी था। जब बांध दरकने लगे, और पीछे खड़े सैलाब की ताकत का आपको अंदाजा हो, तो आप क्या करेंगे? भाग खड़े होंगे। अंग्रेजों ने भी यही किया भाग खड़े हुए! यह वह सैलाब था जो वर्षों की मेहनत से, खुद को तिल-तिल जलाकर, भारत मां के कितने ही नवजवानों को घिस-मांज कर गांधी ने रचा था। यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था। लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे, लड़ने को तैयार थे।

          तो आजादी चरखे से नहीं आई, उस सैलाब से आई! आप समझ सकें तो समझिए कि गांधी का चरखा.. कपड़ा नहीं बुनता था जनाब.. वह सैलाब बुनता था।

(गांधी मार्ग से)

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जिस सैलाब कि हम बात कर रहे हैं क्या आप उसे समझ पा रहे हैं, उसका उफान! उसकी तीव्रता! उसका जोश! और उसकी हुंकार! गांधी के समय में तो हम थे ही नहीं। लेकिन क्या आपको सम्पूर्ण क्रान्ति या 'जेपी आन्दोलन' या 'बिहार आन्दोलन', ध्यान में है? उस समय तो आप भी मौजूद थे। यह सन १९७४ में बिहार में छात्रों द्वारा आरम्भ किया गया एक आन्दोलन था जो इस राज्य के कुशासन एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध था। इसका नेतृत्व महान गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने किया। वैसे तो इसका असर पूरे देश में था लेकिन सैलाब बिहार ने ही देखा था। इस सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे।

* * * * *

        

खुदा-न-खस्ता अगर आप उस समय भी नहीं थे तो 2011 में तो थे! जन लोकपाल विधेयक के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे  के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ। इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। १६ अगस्त को अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया। किंतु इससे आंदोलन पूरे देश में भड़क उठा। देश भर में अगले १२ दिनों तक लगातार बड़ी संख्या में धरना, प्रदर्शन और अनशन आयोजित किए गए। अंततः संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद २८ अगस्त को अन्ना ने अपना अनशन स्थगित करने की घोषणा की। इस आंदोलन में देश भर के युवाओं ने जोश-खरोश से हिस्सा लिया और अन्न हज़ारे को “आज का गांधी” कहा।

          इन दोनों सैलाबों में आपको गांधी के सैलाब की एक झलक दिख जाएगी। इन दोनों में एक समानता थी, ये दोनों ही आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित थे। यानि गांधी के बाद भी लोगों ने अहिंसा की ताकत को पहचाना और उसे हथियार बनाया।

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मेरा देश महान

 

भइया! मेरा यह गट्ठर मेरे सिर पर रख दो', मुम्बई महानगरी की एक सड़क के किनारे एक बुढ़िया लकड़ियों के एक गट्ठर के पास खड़ी उधर से गुजरने वालों से यह निवेदन कर रही थी। किंतु उसकी ओर देखकर सब आगे बढ़ जाते। कुछ तो मुंह बिचकाते हुए निकलते। काफी समय निकल गया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। सूर्यास्त हो चुका था, बुढ़िया को घर पहुंचने और भोजन बनाकर बच्चों को खिलाने की चिंता भी सता रही थी। अचानक उसने देखा पैंट-कोट पहने, टाई लगाए एक सज्जन उसी की तरफ आ रहे हैं। बुढ़िया कातर दृष्टि से उनकी तरफ निहारने लगी। जब वह पास से गुजरने लगे, तब बुढ़िया ने उनसे भी यही निवेदन करना चाहा, किंतु संकोच के कारण उसका उठा हुआ हाथ नीचे आ गया और खुला मुंह बंद हो गया। उन सज्जन को लगा कि बुढ़िया उनसे कुछ कहना चाहती है। वह पीछे मुड़े और बोले, माँ!क्या कुछ कहना चाहती हो?’ यह आत्मीय संबोधन सुनकर बुढ़िया की आंखों में आंसू आ गए। सज्जन ने कहा, मां! रोओ मत, यदि पैसे की जरूरत हो तो...। बुढ़िया आंसू पोंछते हुए बोली, 'नहीं बाबू! मुझे पैसे नहीं चाहिए। मैं तो यहां से गुजरने वालों से लकड़ियों यह गट्ठर अपने सिर पर रखने का निवेदन कर रही थी। किसी ने सहायता नहीं की। आपने मेरे कुछ कहे बिना ही मां कहकर मुझ से पूछा इसलिए आंखों में आंसू आ गए।' उन्होंने लकड़ियों का गट्ठर उठाकर बुढ़िया के सिर पर रख दिया। बुढ़िया ने रुंधे कंठ से कहा, ‘तुम बड़े महान हो बेटा, भगवान तुम्हारा कल्याण करें और वह अपने रास्ते पर चल पड़ी। वह सज्जन थे, मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे।



किसी भी देश को महान बनाने में सबसे अहम भूमिका वहाँ के नागरिकों की ही होती है। महान नागरिक बनिए, देश को महान बनाइये।   

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मंगलवार, 1 जुलाई 2025

सूतांजली जुलाई 2025


 

  अपने प्रति ईमानदार रहो -               आत्म प्रवंचना नहीं

          भगवान् के प्रति सच्चे रहो -            समर्पण में सौदेबाज़ी नहीं

          मानवजाति के साथ सीधे रहो -        दिखावा और पाखण्ड नहीं

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विश्वधर्म की अवधारणा

          ‘विश्व धर्म’ की आवश्यकता और स्वरूप पर चिंतन और विचार-विमर्श विश्व भर में होता रहता है। इन विमर्श में विश्व के धार्मिक प्रतिनिधि, चिंतक, मनीषी, वैज्ञानिक अपने विचारों से हमारा परिचय कराते हैं और साथ ही इस बात पर अपनी प्रतिबद्धता भी दर्शाते हैं कि जो है वह न तो समुचित है और न ही विश्व एकता और शांति को लाने में सक्षम है। तब यह प्रश्न उठता है कि क्या धर्म की आवश्यकता है? लेकिन धर्म से तात्पर्य पंथ से नहीं स्वयं सिद्ध अनुशासन  से है। भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का व्यवहार उन मानवीय गुणों यथा सत्य, अहिंसा, करुणा, अपरिग्रह, आत्मसंयम, सन्तोष, शान्ति आदि को इंगित करने के लिए हुआ है जिनका सभी मनुष्यों द्वारा अपनाया जाना आवश्यक है। हर समाधान नये प्रश्न खड़े करती है।  यही कारण है कि हमें ऐसे विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

          यह स्वीकार्य है कि मनुष्य बिना धर्म के नहीं रह सकता, लेकिन वर्तमान धर्म उन हदों को पार कर चुके हैं जहां अब वे धार्मिक संघर्ष और टकराहट का त्याग कर मनुष्य को शान्ति प्रदान कर सकेंगे। तब पहले इस प्रश्न पर विचार करना है कि धर्म से मनुष्य की क्या और कैसी अपेक्षाएं हैं? कमोबेश हम सब चाहते हैं-

·      सभी प्रकार के भय और दुःखों से छुटकारा और चरम सुख-शान्ति पाना,  

·      अपने परिवार और समाज में मिलकर रहते हुए एक दूसरे की सहायता करना और सुख-दुख बांटना,  

·      इस सृष्टि का स्रोत और स्वयं अपने  जीवन का उद्गम जानना,  

·      सर्वोच्च ज्ञान पाना - ऐसा ज्ञान जिसे पा लेने के बाद कुछ और जानने को बाकी न बचे,

·      सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होना,  

·      अपने सच्चे स्वरूप को जानने के साथ जन्म और मृत्यु के रहस्य को भी जानना,

·      और अगर ईश्वर है तो उसके स्वरूप को भी जानना।

          आज के अधिकतर वैज्ञानिक ईश्वर को नहीं मानते, पर उच्च कोटि के कई ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जो न केवल ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं अपितु विज्ञान और ईश्वर में सामंजस्य बैठाने का प्रयास कर रहे हैं। आजकल वैज्ञानिक एक ‘थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग’ की तलाश कर रहे हैं जिसके अनुसार किसी एक सिद्धान्त के आधार पर सारे संसार की और इसके अन्दर होनेवाली घटनाओं की व्याख्या की जा सकेगी। यह देखना है कि क्या थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग मनुष्य के मन की भी व्याख्या कर सकेगी? जिस प्रकार ‘गॉड पार्टिकल’ को लेकर सारा विश्व उत्सुक हुआ उस से जाहिर है कि जनसाधारण के अवचेतन मन में यह धारणा विद्यमान है कि अन्ततोगत्वा विज्ञान और ईश्वर में सामंजस्य का सूत्र हासिल हो जाएगा।

          पर जिज्ञासा मानव-मात्र में होती है आम मनुष्यों में से बहुतों में ईश्वर के बारे में जिज्ञासा है। आम तौर से ईश्वर के बारे में लोग वही मानते हैं जो उनके धर्म ने उन्हें बचपन से सिखाया है। पर मानने और जानने में भेद है। जहाँ तक मानने की बात है, धर्म के क्षेत्र में विभिन्न धर्मों का मानना अलग-अलग है। यदि हमें बचपन से सिखा दिया गया है कि ईश्वर ने दस अवतार लिए जिनमें राम और कृष्ण प्रमुख हैं, या यह कि ईसा मसीह के रूप में ईश्वर का एक ही पुत्र था, या फिर यह कि हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के सबसे सच्चे और आखिरी पैग़म्बर थे तो हम जीवन भर इन मान्यताओं से चिपके रहेंगे और इन मान्यताओं से मुक्त होना प्रायः असंभव होग। हमारे धर्म हमारे ईश्वर से अधिक शक्तिशाली बन गए हैं। हममें से लगभग सभी का धर्म वही है जो हमें अपने परिवार से मिला है। इस तरह धर्म हमारे लिए एक जेल की तरह काम करता है जिसके बाहर जाने की बात हमारे मन में ही नहीं आती। जब कभी धर्मान्तरण के द्वारा कोई व्यक्ति दूसरा धर्म अंगीकार करता है तो वह एक जेल से दूसरी जेल में जाने जैसा ही होता है।

          संसार में झगड़े, टकराहट और हिंसक उपद्रव धर्म की मान्यताओं को लेकर हो रहे हैं न कि धर्म के वास्तविक स्वरुप को लेकर। हममें से प्रत्येक को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है सभी धार्मिक मान्यताओं से मुक्ति

                    मान्यताएँ बनती कैसे हैं? मनुष्य का मन भाषा के माध्यम में काम करता है। मनुष्य के हर चेतन क्षण में उसके अन्दर भाषा उत्पन्न होती रहती है। और उस भाषा पर उसका नियंत्रण नहीं के बराबर है। मनुष्य वह प्राणी है जो सोचता है। रेने देकार्त का प्रसिद्ध कथन "मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ (कॉजिटो एर्गो सुम)"भाषा के बारे में एक और बहुत विशेष बात। शब्द देश-काल में होते हैं, उनका अर्थ देश-काल के परे होता है। शब्दों की गिनती और विश्लेषण संभव है, अर्थ को न गिना जा सकता है, न उसका विश्लेषण किया जा सकता है। वक्ता और लेखक के मुख या कलम से केवल शब्द ही बाहर आते हैं, उसके शब्दों का अर्थ हम नहीं निकाल सकते। इसलिए वक्ता और लेखक अपने शब्दों का किन अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं यह जानने का कोई उपाय नहीं है, हम केवल अनुमान लगा सकते हैं जो अलग-अलग होते हैं। शब्दों के क्षेत्र में गलत समझने और धोखा खाने की प्रबल सम्भावना है। प्रसिद्ध भारतीय भाषा-दार्शनिक भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय में कहा है- कुशल अनुमान करनेवाले विद्वान बहुत यत्न से शब्दों का अर्थ निश्चित करने का प्रयास करते हैं, पर उनसे चतुर विद्वान उन्हीं शब्दों का अर्थ किसी दूसरी ही तरह करते हैं

          केवल संख्यावाची शब्द इसके अपवाद हैं। संख्या वाची शब्दों का अर्थ सदा एक-सा रहता है। धर्म का क्षेत्र प्रारंभ से अन्त तक मत का क्षेत्र है, तथ्य का नहीं। धर्म में किसी भी शब्द का अर्थ निश्चित नहीं है। आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि शब्द हमारी चेतना में गहरा असर रखते हैं। हम इन शब्दों का सही अर्थ नहीं जानते, और इन शब्दों का कोई सही अर्थ है भी या नहीं यह जानने का कोई उपाय भी नहीं है। एक संत मोक्ष पाने के लिए संसार को त्याग कर पहाडों की  कन्दराओं में रहता है तो दूसरा जन्नत में जाने के लिए अपना और औरों का जीवन नष्ट कर देता है।  जबकि कोई नहीं जानता कि मोक्ष या जन्नत है भी या नहीं, और है तो कैसा है। जिस मोक्ष और जन्नत के बारे में हमें कुछ पता ही नहीं है उसे लेकर संसार का त्याग या आत्महत्या और हज़ारों निर्दोष लोगों की हत्याएँ! ऐसा इसलिए है कि धर्म से जुड़े शब्द हमारी चेतना में गहरे संवेग (इमोशन) जगाते हैं, हम इनके आधार पर कभी भी सही तार्किक दृष्टिकोण नहीं अपना पाते। ऐसे शब्दों से भावनाएँ आसानी से भड़काई जा सकती हैं।

          श्री अरविन्द ने कहा है कि विकास की प्रक्रिया में बढ़ते हुए मनुष्य मन की अवस्था पर पहुँचा है, पर उसे मन की अवस्था पर रुकना नहीं है। मनुष्य को मन के ऊपर उठकर अतिमानस की अवस्था की ओर प्रगति करनी है। जे. कृष्णमूर्ति भी यही बात कहते हैं - मनुष्य को मन और अहंकार दोनों के ऊपर उठना है।

          विश्व धर्म कोई सर्वथा नई अवधारणा नहीं है। प्राचीन भारतीय परम्परा को देखें तो यहाँ प्रारम्भ से विश्व धर्म पर दृष्टि रही है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द और रोमाँ रोला ने विश्व धर्म के लिए आवाज़ उठाई थी। संसार के राजनैतिक वातावरण के कारण उस आवाज़ को बल नहीं मिला। पर आज फिर उस आवाज़ को उठाने की आवश्यकता है।

          जिस विश्व धर्म की संकल्पना की जा रही है वह किसी भी वर्तमान सिद्धान्तों, व्यक्ति, संस्थापक, पवित्र पुस्तक पर आधारित नहीं होगी। किसी भी अनुष्ठानों (रिचुअल) पर आग्रह नहीं रहेगा मनुष्यों को चरम सत्य को अपने ही अन्दर खोजने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

          विश्व धर्म का तात्पर्य यह नहीं है कि लोग अपने-अपने धर्मों को छोड़ देंगे। धर्म का एक बाहरी पक्ष है और दूसरा आन्तरिक। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, पर्व-त्यौहार, तीर्थ-यात्रा आदि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान धर्म के बाह्य पक्ष हैं। ये अपनी-अपनी जगह चलते रहेंगे। अपने-अपने रीति-रिवाज का पालन अपनी-अपनी तरह से होते रहेंगे। पर धर्म के आन्तरिक पक्ष में सभी मनुष्य साधना की ओर उन्मुख होंगे। इसके लिए आवश्यक है कि हम सभी प्रकार की मान्यताओं से मुक्त हों जिनके कारण भ्रान्ति और टकराहट पैदा होती है।

          कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं - चिन्तन कभी स्वतंत्र हो ही नहीं सकता। हमारा चिन्तन सदा किसी प्रतिक्रिया के रूप में उदित होता है। उसमें हमारे पहले के सभी संस्कार प्रतिबिम्बित होते हैं। हम उन संस्कारों की सीमा के अन्दर ही सोचते हैं। उन संस्कारों से मुक्त होने का विचार भी हमारे अन्दर नहीं उठता। स्वतंत्र चिन्तक होने के लिए हमें, कृष्णमूर्ति के अनुसार, ज्ञात से मुक्ति (फ्रीडम फ्रॉम द नोन) पानी होगी। यह धर्म के क्षेत्र में भी आवश्यक है और विज्ञान के भी। यही कारण है कि डेविड बॉम जैसे मूर्धन्य भौतिकीविद् भी कृष्णमूर्ति के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हैं। जब तक हम अब तक जाने-सोचे हुए सभी कुछ से मुक्त नहीं होते तब तक हम मन के बन्धन में बने रहेंगे।



                    विश्व धर्म सभी लोगों को मन, भाषा और चिन्तन के स्तर से ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करेगा। यदि हम इस दिशा में प्रयास करें तो हम धार्मिक झगड़ों और दंगा फसादों से ऊपर उठ अपने अन्दर चरम शान्ति, चरम सुख, चरम ज्ञान और अमरत्व का स्रोत भी पा सकेंगे। यह मार्ग सभी मनुष्यों को समान रूप से उपलब्ध है।

          आशा करनी चाहिए कि हम संसार में शान्ति, सद्भावना और सौहार्द के साथ अपना विकास कर सकेंगे।

(अनिल विद्यालंकार के लेखन पर आधारित)

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